तुम होली आज मना लो -प्रवीण गुप्ता

Holi 2

ये झाँझर तुम झनका लो, एक ठुमका आज लगा लो,
अपने दिल के रंग से, ये दुनिया सारी रंग लो ।

बैर भुला के सारे, इक प्यार की बोली बोलो,
है कोई नहीं पराया, तुम सब को गले लगा लो ।
आज न गाओ बिरहा, तुम प्रीत की ठुमरी गा लो,
जो मदहोश जहाँ को कर दे, उसमें ऐसी भाँग मिला लो ।

Holi

जिसके फूल नहीं मुर्झायें, जहाँ खुशियाँ ही मुस्कायें,
जिस पर सदा चाँदनी बरसे, तुम ऐसी सेज सजा लो ।

क्या साथ था अपने लाया, क्या साथ यहाँ से जाये,
जो खुशियाँ यहाँ हैं पाईँ, वो दोनों हाथ लुटा लो ।
न जाने कब हो फेरी, क्यों करते हो तुम देरी,
प्यार में सब को रंग कर, तुम होली आज मना लो ।

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होली की कविताएं

-विजय कुमार सिंह

हर रंग का अपना रंग जमे ,
यह होली का त्यौहार अलग |
हर सुर का अपना राग सजे ,
इस होली का सुर-राग अलग |

..
रँग लाल गुलाबी केसरिया ,
यह हरा बैंगनी आसमानी |
ये टेसू ,अबीर –गुलाल उड़े ,holi 3
ले धरती रँग सजती धानी |
हर रंग कोई इक अर्थ भरे ,
पर रंग मिले की बात अलग |

हर सुर का अपना राग सजे ,
इस होली का सुर-राग अलग |

..
इक श्वेत रंग से सात रंग ,
सुर सात सजे सुर सरिता से |
निस्वार्थ भाव में जब यह मन ,
तब कौन बड़ा मानवता से |
हर साज़ की एक आवाज़ बजे ,
सुर साथ सजे का नाद अलग |
हर सुर का अपना राग सजे ,
इस होली का सुर-राग अलग |

..
अलगाव की बातें अलग करो ,
यह सीमितता हर पल हारे |
व्यापकता का भी सुख जानो ,
अब खोल रहो मन के द्वारे |
इन दो हाथों क्या हाथ लगे ,
जब सब हाथों से हाथ अलग |
हर सुर का अपना राग सजे ,
इस होली का सुर-राग अलग |

..
Holi 4तुम जान है हिन्दुस्तान कहो ,
या भारत माँ की जय बोलो |
पर जो भी बोलो प्रेम से तुम ,
इक साथ सभी सुर में बोलो |
यह सुर ही अब हर ओर बसे ,
इस सुर की है आवाज़ अलग |
हर सुर का अपना राग सजे ,
इस होली का सुर-राग अलग |

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विपुल गोयल, सिडनी

1. बचपन का ज़माना था, जिसमे खुशियों का ख़ज़ाना था !
माँ का मानना था, पापा का कंधे पर मेला दिखाना था !father
हम ज़िद करते रहते वो ज़िद मानते रहते..
मैं आज कुछ कर न पा रहा हूँ, बूढी हड्डीओं का सहारा बन न पा रहा हूँ !
जब पांच के थे स्कूल गए, जब पंद्रह के हुए तो कॉलेज गए, हर कदम पर दोनों ने सोचा होगा, हमारी आँखों का तारा है हमारे बुढ़ापे के सहारा है…
बैठकर अकेले मैं सिसकियाँ भरता हूँ और कोई पूछता है,
तो हकला जाता हूँ, बोल कुछ न पाता हूँ मैं अपने माता पिता को शत शत प्रणाम करता हूँ,
उस खुदा से भी ज़यादा उन्हें प्यार करता हूँ !

………………………

2. शायरी कई बार करनी छोड़ दी हैं हमने,
शायरी कई बार करनी छोड़ दी हैं हमने…

पर कम्ब्खत, यह दिल और कलम दोनों ही बेवफा हैं,
पर कम्ब्खत, यह दिल और कलम दोनों ही बेवफा हैं,

हैं हमारे…………….हैं हमारे…………….. पर बयां उनकी करते हैं !

हुसन उनका ,कलम हमारी !rose-paper-pen-300x180
ज़ुलहफे उनकी , स्याही हमारी !
शर्मना उनका, लिखाई हमारी !

बस हर पल जब कहते हैं …….अब न लिखेंगे !
बस हर पल जब कहते हैं ………अब न लिखेंगे !

वो सपनो मैं आते  हैं, इत्र कर कह जाते हैं !

बस इतना ही हमे चाहते हैं !

हम फिर शुरुवात करते हैं………………….. हम फिर शुरुवात करते हैं…

अपनी कलम और अपना दिन दोनों उनके नाम करते हैं !
अपनी कलम और अपना दिन दोनों उनके नाम करते हैं !

जनाब अब समज मैं आया, जनाब अब समज मैं आया,

कलम और दिल दोनों ही अपनी वफ़ा निभा रहे हैं..
कलम और दिल दोनों ही अपनी वफ़ा निभा रहे हैं…

पाक खुद की मोहब्बत मैं चार चाँद लगा रहे हैं !
चार चाँद लगा रहे हैं !

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क़तरा क़तरा बातें- रेखा राजवंशी सिडनी

अश्कों की बरसातें लेकर लोग मिले

ग़म में भीगी रातें लेकर लोग मिले

..

पूरी एक कहानी कैसे बन पातीthe_good_people_figurative_abstract_paintings_by_t_5173d181c22350fb88e069e382f082a5

क़तरा क़तरा बातें लेकर लोग मिले

 

भर पाते नासूर दिलों के कैसे जब

ज़हर बुझी सौगातें लेकर लोग मिले

 

अब गैरों से क्या शिकवा करने जाएं

अपनों को ही मातें देकर लोग मिले

 

आशिक का टूटा दिल कोई क्यों देखे

जब अपनी बारातें लेकर लोग मिले

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हरिहर झा, ऑस्ट्रेलिया

कलम गहो हाथों में साथी
शस्त्र हजारों छोड़

तूलिका चले, खुले रहस्य तो
धोखों  से  उद्धार
भेद बताने लगें आसमाँ
जिद्द  छोड़ें  गद्दार
पड़ाव हर मंजिल के नापें
चट्टानो को तोड़

मोड़ें बादल बिजली का रूख
शयन सैंकड़ों  छोड़rose-paper-pen-300x180

कीचड़ ना हो, नदियाँ निर्मल
दूर हो भ्रष्टाचार
कोयल खुद अंडे सेये
निर्मल कर दे आचार
श्रम को स्वर दे बाग-बगीचे
घर आँगन हर मोड़

खुशियों के सिक्के बाँटे हम
लोभ पचासों छोड़

प्रयोगशाला रणभूमि है
परखनली हथियार
‘कुञ्जी पट’ से नभमण्डल की
खेवेंगे पतवार
किरण मिले भारत प्रतिभा की
‘विश्व-गाँव’ में होड़

‘होरी’ दूहे धेनु
खनकते  सिक्के लाखों छोड़

– हरिहर झा, ऑस्ट्रेलिया

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अजय बजाज- सिडनी

nuria-farre-11एक जिंदगी रूप हज़ार

ऐ जिंदगी तू भी ऐक शह है अजीब सी ! ना जाने कभी एहसास ऐसा होता है क्यों
लगता है छोटा सा सफर भी एक बोझ तेरी राहों में तेरे साथ चलते चलते
तो कभी तेरे दिए लम्हों की छोटी-छोटी यादें एक लंबे सफर का सहारा भी बन जाती है
कभी चाहता है दिल कि लगा लूं तुझे सीने से मैं तो कभी दूर तुझसे जाने का करता है मन

कहने को तो तेरा रंग और रूप नहीं मगर हर रंग और रूप में तुझे मैंने पाया है
कभी खाक से मायूस रंग में देखा और कभी सात रंग के सपने तूने ही दिखाऐ
दोस्तों में भी पाया है तुम्हें और दुश्मनों में भी नजर आए हो तुम
कड़कती धूप में प्यासे होंट तुम्हारे ही थे और किसी पेड़ की सुकून छाया में तुम्हें ही पाया है

और क्या कहूं तुझे जिंदगी ! दोस्ती का नाम भी तो तूने ही सिखाया है मुझे
ऐक परछाई की तरह हर पल साथ मेरे चली है तू ! फूल भी तूने ही दिए और कांटो के साथ भी रहना सिखाया है मुझे
यह भी जानता हूं कि तेरा साथ हमेशा के लिए नहीं मगर
तू हकीकत है या महज़ एक ख्वाब यह बताते जा जरा

अजय

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कुलवंत खुराना, सिडनी

 

न पूछ तूं इस शहर की ख़ामोशी का आलम,
बड़ी ख़ौफ़नाक चीख़ो के दौर से गुज़रा है ये

….

न कर इस ज़माने से तूं शिकवा कोई अब,
यहाँ गुनहगार ही पहरेदार बने बैठे हों जब।

….

मत गिन ए दोस्त यूँही तूं किताबें ज़िंदगी के ये सफ़े,
सिर्फ़उन लफ़्ज़ों पर दे तवज्जो जो सब बयां कर गये।..dry-leaves-snow-570321

हमने बादलों और इंसानों को बड़े क़रीब से गरजते और बरसते देखा है,
अफ़सोस जब बरसना हो तो गरजते हैं और जब गरजना हो तो बरसते हैं।

….

करके इबादत अब गर पाना है तुझे मर जाने के बाद,
जीने दे ज़रा करा लेना इबादत वक़्त आने के बाद।

…..

अब ये दोस्त जीने नहीं देते ऐ ख़ुदा,
क्यूँ न अब कुछ दुश्मन ही बना लूँ।

…..

कभी भाषा तो कभी परिभाषा के दायरे में रहे,
कभी आशा तो कभी अभिलाषा के दायरे में रहे,
सोचता हूँ एक और भी दुनिया हो इन दायरों से परे।

 

 

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गौरव कपूर, सिडनी

गलियाँ तंग ऊँचे ऊँचे चौबारे थे
मेरे बचपन में कुछ ऐसे ही नज़ारे थे
घर पे कुछ भी ख़ास पकाओ
तो मोहल्ले में बांटने का चलन था
जिन लोगों से अपने भाईचारे थे…!

वक़्त ने हालात बदल दिए हैं
अब गली में बच्चे ना तो क्रिकेट खेलते हैं
ना ही कंचे गिल्ली डंडे और कबड्डी का शोर है
आँख मिचौली का खेल अब असल ज़िंदगी से
खेलने के अादि हो गए हैं अब हम सब के सब….! Galiyan

पहले शाम होने का इंतज़ार सा रहता था
अब सुबह से कब रात हो जाती है खबर ही नहीं पड़ती .. बच्चे भी अब कंप्यूटर और मोबाइल पर ही खेलते हैं आजकल … यूं लगता है के वक़्त से पहले ही जवान हो गए हैं शायद !!

मैं खेला करता था जिनमें वो गलियाँ बड़ी सुनसान हैं अब तो ..
पतंग उडाता था जिनपे वो चौबारे बड़े वीरान हैं अब तो…!

बच्चे अब सड़क पे खेलें भी तो कार के नीचे ना आ जाएँ ये सोच कर सहम सा जाता हूँ .. बड़ा शहर खुली सड़कें और साफ़ सुथरे मोहल्ले हैं पर इनमें बचपन मर सा गया शायद .. हर माँ बाप मेरी ही तरह थोड़ा डर सा गया है शायद ..

मेरे बचपन में गलियों में कारें नहीं चलती थीं
अच्छे दिन आएंगे ये बोल के सरकारें नहीं चलती थीं
उससे अच्छे दिन मेरी ज़िंदगी में कभी ना आएंगे अब शायद …

गलियाँ तंग ऊँचे ऊँचे चौबारे थे
मेरे बचपन में ऐसे ही कुछ नज़ारे थे !!

– गौरव –

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मातृभूमि को समर्पित- विजय कुमार सिंह

(यह मेरा सौभाग्य है ,वह देश मेरी मातृभूमि है जिसने मनुष्य की चारों ही race (यदि आप इन्हें मानते हैं ) Negrito, Australoid, Caucasoid, Mongoloid को आश्रय दिया है | उन्हें पाला-पोसा है | मैं नहीं जानता और ऐसे देश कितने हैं? कोई है भी या नहीं ? आज़ यह वैज्ञानिक अकाट्य सत्य है कि हम आधुनिक मनुष्य अभी दो लाख साल पहले ही इस धरती पर अस्तित्व में आए हैं | सारी दुनियाँ के लोग आज़ से दो लाख साल पहले पूर्वी अफ्रीका के कुछ हजार लोगों की ही संतानें हैं | जब तक इस बात को हम हमेशा याद नहीं रखेंगे | हम मानव के एकत्व को नहीं सनझ पायेंगे | उसके बाद कब मानव में परिवर्तन आए ? यह बात भी genetic science ने काफ़ी कुछ स्पष्ट कर दी है | कब-कब कौन सी भाषा बनी इस पर भी काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है | migration कब ,किस तरह हुआ होगा ? यह भी अब काफ़ी स्पष्ट है | भले ही हर एक नयी शोध उसमें कुछ सुधार लाती है |इस कविता की कई पंक्तियाँ बहस का विषय हो सकती हैं | पर मनुष्य की एकता की भावना नहीं |)
ओ प्यारे भारत देश मेरे…

ओ प्यारे भारत देश मेरे क्या खूब रवानी तेरी है ,
धीरे-धीरे सदियाँ बीतीं क्या खूब कहानी तेरी है |
अफ्रीका के पूरब से चलकर मनुज यहाँ पर जब आए,
तेरे पश्चिम सागर तट से फिर सुदूर पूर्व में बढ़ पाए |
अंडमान तक पहुँच गए वे ऐसे ही बढ़ते–बढ़ते ,
दो लाख साल पहले बने मनुज नेग्रीटो नाम से कहलाए |
पचास हजार वर्ष से ज्यादा यह कथा पुरानी तेरी है ,
धीरे-धीरे सदियाँ बीतीं क्या खूब कहानी तेरी है |


अफ्रीका से ही फिर से निकल इक दूजी लहर पुनः आई ,2 India
लहराते बाल भले ही इनके नेग्रीटो जैसी ही छवि पाई |
यह ही लहर तेरे उत्तर से पूर्वी एशिया तक जा पहुँची ,
सिंध से ओड़िशा छाने वाली यह रेस ऑस्ट्रेलियाड कहलाई |
चालीस हजार वर्ष से ज्यादा यह कथा पुरानी तेरी है ,
धीरे-धीरे सदियाँ बीतीं क्या खूब कहानी तेरी है |


पचास हजार साल पहले ही कुछ मानव में बदलाव हुए ,
जलवायु से स्टेपी में रहने वालों के रंग थोड़े से साफ़ हुए |
ऑस्ट्रेलियाड से ही मंगोलौइड और कौकसिऔइड रेस बनीं,
कौकसिऔइड सिन्धु नदी के तट पर आकर आबाद हुए |
बारह हजार वर्ष से ज्यादा यह कथा पुरानी तेरी है ,
धीरे-धीरे सदियाँ बीतीं क्या खूब कहानी तेरी है |


बारह हजार साल पहले नदियों पर कृषि का प्रादुर्भाव हुआ ,
शहरों और लिखाई का पाँच हजार साल पहले विकास हुआ |
कास्य काल की सिंधु सभ्यता तेरे उत्तर-पश्चिम में फ़ैल गई ,
सिंध में रहने वालों का एशिया भर से व्यापार हुआ |
दस हजार वर्ष से ज्यादा यह कथा पुरानी तेरी है ,
धीरे-धीरे सदियाँ बीतीं क्या खूब कहानी तेरी है |

….
घोड़ों से चलने वाले रथ लेकर कौकसिऔइड फिर आए ,
वे तीली वाले रथ दौड़ाते उन्नत काव्य परम्परा भी लाए |
इनकी ही हिन्द-यूरोपीय भाषाएँ पूरे यूरोप एशिया में फैलीं ,
यहीं पर आकर आर्यों ने देवों के ऋचाओं में गुण गाए |
चार हजार वर्ष से ज्यादा यह कथा पुरानी तेरी है ,
धीरे-धीरे सदियाँ बीतीं क्या खूब कहानी तेरी है |


चार हजार साल पहले ही तेरे पूरब मंगोलौइड भी आन बसे ,
बीस हजार साल पहले ये ही रूस से हो अमरीका को चले |
अमेरिका में मूल अमरीकी बन सारे पूर्वी एशिया छाए,
देश मेरे तुझमें सब आकर हँसी-खुशी सारे ही पले |
तू ही सबका आश्रय दाता यह बात पुरानी तेरी है ,
धीरे-धीरे सदियाँ बीतीं क्या खूब कहानी तेरी है |


सभी विवाद तभी तक जिंदा जब तक हम यह सच न जानें ,
प्यार नाम है भेद भुलाना नफ़रत के सब भेद जताने |
किसी देश का रहने वाला रंग ,रूप ,धर्म कोई भाषा,
सबके सब नेग्रीटो से ही पैदा अफ्रीका की ही सब संतानें |
सबको तूने पाला पोसा यह ख्याति पुरानी तेरी है ,
धीरे-धीरे सदियाँ बीतीं क्या खूब कहानी तेरी है |
1.Negrito-“little black person” ;2. Australoid (southern+like) ,denoting the broad division of humankind represented by Australian Aboriginal peoples:3.Caucasoid (Caucasus+like) ,काकेशस -A region between the Black and Caspian Seas ;4.Mongoloid (mongol+like) ;5.प्रादुर्भाव-origin ;6.कास्य-bronze ;7.हिन्द-यूरोपीय- Indo-European |

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सुभाष शर्मा – मेलबर्न

फादर्स डे पर…..father
पिता दिवस

पिता बना समझा तभी एक पिता की पीर
पिता सिधारे स्वर्ग तब चले ह्रदय पर तीर

जीवन भर खाता रहा डाँट और फट कार
कभी समझ पाया नहीं कहाँ छुपा है प्यार

माँ के आँसू बोलते बिन बोले सब बोल
पिता सदा आँसू पिए तरह तरह से बोल

बेटी की पीड़ा सही कभी न किया प्रचार
ख़ुशी बाँटते ही रहे ले ले हँसी उधार

मेरी शिक्षा के लिए मोपेड़ लयी उधार
ख़ुद टूटे सी साइकिल उसपे रहे सवार

तुम पर टूटी साइकल मुझ पर मोटर कार
आज पिता जी तुम बिना सब कुछ है बेकार

शासन अनुशासन पिता का हम पर अधिकार
जीवन क्रम और त्याग का है अनुपम आधार

पि त्र दिवस पर आप से माँगू एक उपहार
पुनर्जन्म में आपका पुत्र बनूँ हर बार

सुभाष

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