न पूछ तूं इस शहर की ख़ामोशी का आलम,
बड़ी ख़ौफ़नाक चीख़ो के दौर से गुज़रा है ये
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न कर इस ज़माने से तूं शिकवा कोई अब,
यहाँ गुनहगार ही पहरेदार बने बैठे हों जब।
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मत गिन ए दोस्त यूँही तूं किताबें ज़िंदगी के ये सफ़े,
सिर्फ़उन लफ़्ज़ों पर दे तवज्जो जो सब बयां कर गये।..
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हमने बादलों और इंसानों को बड़े क़रीब से गरजते और बरसते देखा है,
अफ़सोस जब बरसना हो तो गरजते हैं और जब गरजना हो तो बरसते हैं।
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करके इबादत अब गर पाना है तुझे मर जाने के बाद,
जीने दे ज़रा करा लेना इबादत वक़्त आने के बाद।
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अब ये दोस्त जीने नहीं देते ऐ ख़ुदा,
क्यूँ न अब कुछ दुश्मन ही बना लूँ।
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कभी भाषा तो कभी परिभाषा के दायरे में रहे,
कभी आशा तो कभी अभिलाषा के दायरे में रहे,
सोचता हूँ एक और भी दुनिया हो इन दायरों से परे।