मेरे बचपन में कुछ ऐसे ही नज़ारे थे
घर पे कुछ भी ख़ास पकाओ
तो मोहल्ले में बांटने का चलन था
जिन लोगों से अपने भाईचारे थे…! …
वक़्त ने हालात बदल दिए हैं
अब गली में बच्चे ना तो क्रिकेट खेलते हैं
ना ही कंचे गिल्ली डंडे और कबड्डी का शोर है
आँख मिचौली का खेल अब असल ज़िंदगी से
खेलने के अादि हो गए हैं अब हम सब के सब….!
पहले शाम होने का इंतज़ार सा रहता था
अब सुबह से कब रात हो जाती है खबर ही नहीं पड़ती .. बच्चे भी अब कंप्यूटर और मोबाइल पर ही खेलते हैं आजकल … यूं लगता है के वक़्त से पहले ही जवान हो गए हैं शायद !!
मैं खेला करता था जिनमें वो गलियाँ बड़ी सुनसान हैं अब तो ..
पतंग उडाता था जिनपे वो चौबारे बड़े वीरान हैं अब तो…!
बच्चे अब सड़क पे खेलें भी तो कार के नीचे ना आ जाएँ ये सोच कर सहम सा जाता हूँ .. बड़ा शहर खुली सड़कें और साफ़ सुथरे मोहल्ले हैं पर इनमें बचपन मर सा गया शायद .. हर माँ बाप मेरी ही तरह थोड़ा डर सा गया है शायद ..
मेरे बचपन में गलियों में कारें नहीं चलती थीं
अच्छे दिन आएंगे ये बोल के सरकारें नहीं चलती थीं
उससे अच्छे दिन मेरी ज़िंदगी में कभी ना आएंगे अब शायद …
गलियाँ तंग ऊँचे ऊँचे चौबारे थे
मेरे बचपन में ऐसे ही कुछ नज़ारे थे !!
– गौरव –