दोहे
छोटी सी थी अंजुरी, बहुत बड़ी थी चाह
जाने कैसे खो गई, चौराहे पर राह ।
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अधरों में खोते रहे अनजाने से छंद
सपने तेरे आँख नें पलकें हुई न बंद ।
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जिससे भी झूला बंधा टूट गई वो शाख
आँगन में जलता रहा बिन फागुन-बैसाख ।
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धूल भरे थे दिन यहाँ शूल भरी थी रात
पुतली से बादल बिंधे पलकों में बरसात
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हुई दीप सी ज़िंदगी दीपशिखा सी सांस
जहां हुई थी प्रार्थना वही. जला मधुमास
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अनिल वर्मा
अनिल जी के दोहे अत्यंत भावप्रवण व मारक लगे. उन्हें बधाई |
आस्ट्रेलिया में रचे जा रहे हिन्दी साहित्य को नेट पर सहेजने का काम प्रशंसनीय है | आपको भी बधाई |
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